Friday, September 4, 2009

नागार्जुन

अंह का शेषनाग
हज़ार फन फैलाए
बैठा है मारकर गुंजलक
अंह का शेषनाग
लेटा है मोह का नारायण
वो देखो नाभि
वो देखो संशय का शतदल
वो देखो स्वार्थ का चतुरानन
चाँप रही चरण-कमल लालसा-लक्ष्मी
लहराता है सात समुद्रों का एक समुद्र
दूधिया झाग...
दूधिया झाग...
(1967 में रचित, ‘इस गुब्बारे की छाया में’ नामक संग्रह से )

वाह पाटलिपुत्र !

क्षुब्ध गंगा की तरंगों के दुसह आघात...
शोख पुरवइया हवा की थपकियों के स्पर्श...
खा रही है किशोरों की लाश...
--हाय गांधी घाट !
--हाय पाटलिपुत्र !
दियारा है सामने उस पार
पीठ पीछे शहर है इस पार
आज ही मैं निकल आया क्यों भला इस ओर ?
दे रहा है मात मति को
दॄश्य अति बीभत्स यह घनघोर ।
भागने को कर रही है बाध्य
सड़ी-सूजी लाश की दुर्गन्ध
मर चुका है हवाखोरी का सहज उत्साह
वह गंगा, वाह !
वाह पाटलिपुत्र !
(1957 में रचित, ‘इस गुब्बारे की छाया में’ नामक संग्रह से)

अभी-अभी उस दिन
अभी-अभी उस दिन मिनिस्टर आए थे
बत्तीसी दिखलाई थी, वादे दुहराए थे
भाखा लटपटाई थी, नैन शरमाए थे
छपा हुआ भाषण भी पढ़ नहीं पाए थे
जाते वक्त हाथ जोड़ कैसे मुस्कराए थे
अभी-अभी उस दिन...

धरती की कोख जली, पौधों के प्राण, गए
मंत्रियों की मंत्र-शक्ति अब मान गए
हालत हुई पतली, गहरी छान गए
युग-युग की ठगिनी माया को जान गए
फैलाकर जाल-जूल रस्सियाँ तान गए
धरती की...
(1953 में रचित, ‘इस गुब्बारे की छाया में’ नामक संग्रह से)
भारत भाग्य विधाता

ख़ून-पसीना किया बाप ने एक, जुटाई फीस
आँख निकल आई पढ़-पढ़के, नम्बर पाए तीस
शिक्षा मंत्री ने सिनेट से कहा--"अजी शाबाश !
सोना हो जाता हराम यदि ज़्यादा होते पास"
फेल पुत्र का पिता दुखी है, सिर धुनती है माता
जन गण मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता
(1953 में रचित, ‘इस गुब्बारे की छाया में’ नामक संग्रह से)

छतरी वाला जाल छोड़कर
छतरी वाला जाल छोड़कर
अरे, हवाई डाल छोड़कर
एक बंदरिया कूदी धम से
बोली तुम से, बोली हम से,
बचपन में ही बापू जी का प्यार मिला था
सात समन्दर पार पिता के धनी दोस्त थे
देखो, मुझको यही, नौलखा हार मिला था
पिता मरे तो हमदर्दी का तार मिला था
आज बनी मैं किष्किन्धा की रानी
सारे बन्दर, सारे भालू भरा करें अब पानी
मुझे नहीं कुछ और चाहिए तरुणों से मनुहार
जंगल में मंगल रचने का मुझ पर दारमदार
जी, चन्दन का चरखा लाओ, कातूँगी मैं सूत
बोलो तो, किस-किस के सिर से मैं उतार दूँ भूत
तीन रंग का घाघरा, ब्लाउज गांधी-छाप
एक बंदरिया उछल रही है देखो अपने आप
(1967 में रचित, ‘इस गुब्बारे की छाया में’ नामक संग्रह से)

भारत-पुत्री नगरवासिनी

धरती का आँचल है मैला
फीका-फीका रस है फैला
हमको दुर्लभ दाना-पानी
वह तो महलों की विलासिनी
भारत पुत्री नगरवासिनी

विकट व्यूह, अति कुटिल नीति है
उच्चवर्ग से परम प्रीति है
घूम रही है वोट माँगती
कामराज कटुहास हासिनी
भारत पुत्री नगरवासिनी

खीझे चाहे जी भर जान्सन
विमुख न हों रत्ती भर जान्सन
बेबस घुटने टेक रही है
घर बाहर लज्जा विनाशिनी
भारत पुत्री नगरवासिनी

(1967 में रचित, ‘इस गुब्बारे की छाया में’ नामक संग्रह से)

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