<बी>क्षुब्ध गंगा की तरंगों के दुसह आघात...
शोख पुरवइया हवा की थपकियों के स्पर्श...
खा रही है किशोरों की लाश...
--हाय गांधी घाट !
--हाय पाटलिपुत्र !
दियारा है सामने उस पार
पीठ पीछे शहर है इस पार
आज ही मैं निकल आया क्यों भला इस ओर ?
दे रहा है मात मति को
दॄश्य अति बीभत्स यह घनघोर ।
भागने को कर रही है बाध्य
सड़ी-सूजी लाश की दुर्गन्ध
मर चुका है हवाखोरी का सहज उत्साह
वह गंगा, वाह !
वाह पाटलिपुत्र !
रचनाकार :- नागार्जुन
(1957 में रचित, ‘इस गुब्बारे की छाया में’ नामक संग्रह से)
Saturday, September 5, 2009
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