यह फागुनी हवा |
मेरे दर्द की दवा |
ले आई...ई...ई...ई |
मेरे दर्द की दवा! |
आंगन ऽ बोले कागा |
पिछवाड़े कूकती कोयलिया |
मुझे दिल से दुआ देती आई |
कारी कोयलिया-या |
मेरे दर्द की दवा |
ले के आई-ई-दर्द की दवा! |
वन-वन |
गुन-गुन |
बोले भौंरा |
मेरे अंग-अंग झनन |
बोले मृदंग मन-- |
मीठी मुरलिया! |
यह फागुनी हवा |
मेरे दर्द की दवा ले के आई |
कारी कोयलिया! |
अग-जग अंगड़ाई लेकर जागा |
भागा भय-भरम का भूत |
दूत नूतन युग का आया |
गाता गीत नित्य नया |
यह फागुनी हवा...! |
(रचनाकाल : 1956 तथा 'सारिका' के 1 अप्रैल 1979 के अंक में प्रकाशित) |
Saturday, June 18, 2011
यह फागुनी हवा - फणीश्वर नाथ रेणु
मिनिस्टर मंगरू - फणीश्वर नाथ रेणु
'कहाँ गायब थे मंगरू?'-किसी ने चुपके से पूछा। |
वे बोले- यार, गुमनामियाँ जाहिल मिनिस्टर था। |
बताया काम अपने महकमे का तानकर सीना- |
कि मक्खी हाँकता था सबके छोए के कनस्टर का। |
सदा रखते हैं करके नोट सब प्रोग्राम मेरा भी, |
कि कब सोया रहूंगा औ' कहाँ जलपान खाऊंगा। |
कहाँ 'परमिट' बेचूंगा, कहाँ भाषण हमारा है, |
कहाँ पर दीन-दुखियों के लिए आँसू बहाऊंगा। |
'सुना है जाँच होगी मामले की?' -पूछते हैं सब |
ज़रा गम्भीर होकर, मुँह बनाकर बुदबुदाता हूँ! |
मुझे मालूम हैं कुछ गुर निराले दाग धोने के, |
'अंहिसा लाउंड्री' में रोज़ मैं कपड़े धुलाता हूँ। |
('नई दिशा' के 9 अगस्त, 1949 के अंक में प्रकाशित) |
गत मास का साहित्य!! - फणीश्वर नाथ रेणु
गत माह, दो बड़े घाव |
धरती पर हुए, हमने देखा |
नक्षत्र खचित आकाश से |
दो बड़े नक्षत्र झरे!! |
रस के, रंग के-- दो बड़े बूंद |
ढुलक-ढुलक गए। |
कानन कुंतला पृथ्वी के दो पुष्प |
गंधराज सूख गए!! |
(हमारे चिर नवीन कवि, |
हमारे नवीन विश्वकवि |
दोनों एक ही रोग से |
एक ही माह में- गए |
आश्चर्य?) |
तुमने देखा नहीं--सुना नहीं? |
(भारत में) कानपुर की माटी-माँ, उस दिन |
लोरी गा-गा कर अपने उस नटखट शिशु को |
प्यार से सुला रही थी! |
(रूस में)पिरिदेलकिना गाँव के |
उस गिरजाघर के पास- |
एक क्रास... एक मोमबत्ती |
एक माँ... एक पुत्र... अपूर्व छवि |
माँ-बेटे की! मिलन की!! ... तुमने देखी? |
यह जो जीवन-भर उपेक्षित, अवहेलित |
दमित द्मित्रि करमाज़व के |
(अर्थात बरीस पस्तेरनाक; |
अर्थात एक नवीन जयघोष |
मानव का!)के अन्दर का कवि |
क्रांतदर्शी-जनयिता, रचयिता |
(...परिभू: स्वयंभू:...) |
ले आया एक संवाद |
आदित्य वर्ण अमृत-पुत्र का : |
अमृत पर हमारा |
है जन्मगत अधिकार! |
तुमने सुना नहीं वह आनंद मंत्र? |
[आश्चर्य! लाखों टन बर्फ़ के तले भी |
धड़कता रहा मानव-शिशु का हृत-पिंड? |
निरंध्र आकाश को छू-छू कर |
एक गूंगी, गीत की कड़ी- मंडराती रही |
और अंत में- समस्त सुर-संसार के साथ |
गूँज उठी! |
धन्य हम-- मानव!!] |
बरीस |
तुमने अपने समकालीन- अभागे |
मित्रों से पूछा नहीं |
कि आत्महत्या करके मरने से |
बेहतर यह मृत्यु हुई या नहीं? |
[बरीस |
तुम्हारे आत्महंता मित्रों को |
तुमने कितना प्यार किया है |
यह हम जानते हैं!] |
कल्पना कर सकता हूँ उन अभागे पाठकों की |
जो एकांत में, मन-ही-मन अपने प्रिय कवि |
को याद करते हैं- छिप-छिप कर रोते- अआँसू पोंछते हैं; |
पुण्य बःऊमि रूस पर उन्हें गर्व है |
जहाँ तुम अवतरे-उनके साथ |
विश्वास करो, फिर कोई साधक |
साइबेरिया में साधना करने का |
व्रत ले रहा है। ...मंत्र गूँज रहा है!! |
...बाँस के पोर-पोर को छेदकर |
फिर कोई चरवाहा बाँसुरी बजा रहा है। |
कहीं कोई कुमारी माँ किसी अस्तबल के पास |
चक्कर मार रही है-- देवशिशु को |
जन्म देने के लिए! |
संत परम्परा के कवि पंत |
की साठवीं जन्मतिथि के अवसर पर |
(कोई पतियावे या मारन धावे |
मैंने सुना है, मैंने देखा है) |
पस्तेरनाक ने एक पंक्ति लिख भेजी: |
"पिंजड़े में बंद असहाय प्राणी मैं |
सुन रहा हूँ शिकारियों की पगध्वनि... आवाज़! |
किंतु वह दिन अत्यन्त निकट है |
जब घृणित-क़दम-अश्लील पशुता पर |
मंगल-कामना का जयघोष गूँजेगा |
निकट है वह दिन... |
हम उस अलौकिक के सामने |
श्रद्धा मॆं प्रणत हैं।" |
फिर नवीन ने ज्योति विहग से अनुरोध किया |
"कवि तुम ऎसी तान सुनाओ!" |
सौम्य-शांत-पंत मर्मांत में |
स्तब्ध एक आह्वान..?? |
हमें विश्वास है |
गूँजेगा, |
गूँजेगा!! |
अपने ज़िले की मिट्टी से - फणीश्वर नाथ रेणु
कि अब तू हो गई मिट्टी सरहदी |
इसी से हर सुबह कुछ पूछता हूँ |
तुम्हारे पेड़ से, पत्तों से |
दरिया औ' दयारों से |
सुबह की ऊंघती-सी, मदभरी ठंडी हवा से |
कि बोलो! रात तो गुज़री ख़ुशी से? |
कि बोलो! डर नहीं तो है किसी का? |
तुम्हारी सर्द आहों पर सशंकित |
सदा एकांत में मैं सूंघता हूँ |
उठाकर चंद ढेले |
उठाकर धूल मुट्ठी-भर |
कि मिट्टी जी रही है तो! |
बला से जलजला आए |
बवंडर-बिजलियाँ-तूफ़ाँ हज़ारों ज़ुल्म ढाएँ |
अगर ज़िंदी रही तू |
फिर न परवाह है किसी की |
नहीं है सिर पे गोकि 'स्याह-टोपी' |
नहीं हूँ 'प्राण-हिन्दू' तो हुआ क्या? |
घुमाता हूँ नहीं मैं रोज़ डंडे-लाठियाँ तो! |
सुनाता हूँ नहीं-- |
गांधी-जवाहर, पूज्यजन को गालियाँ तो! |
सिर्फ़ 'हिंदी' रहा मैं |
सिर्फ़ ज़िंदी रही तू |
और हमने सब किया अब तक! |
सिर्फ़ दो-चार क़तरे 'ध्रुव' का ताज़ा लहू ही |
बड़ी फ़िरकापरस्ती फ़ौज को भी रोक लेगा |
कमीनी हरक़तों को रोक लेगा |
कि अब तो हो गई मिट्टी सरहदी |
(इसी से डर रहा हूँ!) |
कि मिट्टी मर गई पंजाब की थी |
शेरे-पंजाब के प्यारे वतन की |
'भगत' |
इमेर्जेंसी / फणीश्वर नाथ रेणु
इस ब्लाक के मुख्य प्रवेश-द्वार के समने |
हर मौसम आकर ठिठक जाता है |
सड़क के उस पार |
चुपचाप दोनों हाथ |
बगल में दबाए |
साँस रोके |
ख़ामोश |
इमली की शाखों पर हवा |
'ब्लाक' के अन्दर |
एक ही ऋतु |
हर 'वार्ड' में बारहों मास |
हर रात रोती काली बिल्ली |
हर दिन |
प्रयोगशाला से बाहर फेंकी हुई |
रक्तरंजित सुफ़ेद |
खरगोश की लाश |
'ईथर' की गंध में |
ऊंघती ज़िन्दगी |
रोज़ का यह सवाल, 'कहिए! अब कैसे हैं?' |
रोज़ का यह जवाब-- ठीक हूँ! सिर्फ़ कमज़ोरी |
थोड़ी खाँसी और तनिक-सा... यहाँ पर... मीठा-मीठा दर्द! |
इमर्जेंसी-वार्ड की ट्रालियाँ |
हड़हड़-भड़भड़ करती |
आपरेशन थियेटर से निकलती हैं- इमर्जेंसी! |
सैलाइन और रक्त की |
बोतलों में क़ैद ज़िन्दगी! |
-रोग-मुक्त, किन्तु बेहोश काया में |
बूंद-बूंद टपकती रहती है- इमर्जेंसी! |
सहसा मुख्य द्वार पर ठिठके हुए मौसम |
और तमाम चुपचाप हवाएँ |
एक साथ |
मुख और प्रसन्न शुभकामना के स्वर- इमर्जेंसी! |
('धर्मयुग'/ 26 जून, 1977 में पहली बार प्रकाशित) |
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