कि अब तू हो गई मिट्टी सरहदी |
इसी से हर सुबह कुछ पूछता हूँ |
तुम्हारे पेड़ से, पत्तों से |
दरिया औ' दयारों से |
सुबह की ऊंघती-सी, मदभरी ठंडी हवा से |
कि बोलो! रात तो गुज़री ख़ुशी से? |
कि बोलो! डर नहीं तो है किसी का? |
तुम्हारी सर्द आहों पर सशंकित |
सदा एकांत में मैं सूंघता हूँ |
उठाकर चंद ढेले |
उठाकर धूल मुट्ठी-भर |
कि मिट्टी जी रही है तो! |
बला से जलजला आए |
बवंडर-बिजलियाँ-तूफ़ाँ हज़ारों ज़ुल्म ढाएँ |
अगर ज़िंदी रही तू |
फिर न परवाह है किसी की |
नहीं है सिर पे गोकि 'स्याह-टोपी' |
नहीं हूँ 'प्राण-हिन्दू' तो हुआ क्या? |
घुमाता हूँ नहीं मैं रोज़ डंडे-लाठियाँ तो! |
सुनाता हूँ नहीं-- |
गांधी-जवाहर, पूज्यजन को गालियाँ तो! |
सिर्फ़ 'हिंदी' रहा मैं |
सिर्फ़ ज़िंदी रही तू |
और हमने सब किया अब तक! |
सिर्फ़ दो-चार क़तरे 'ध्रुव' का ताज़ा लहू ही |
बड़ी फ़िरकापरस्ती फ़ौज को भी रोक लेगा |
कमीनी हरक़तों को रोक लेगा |
कि अब तो हो गई मिट्टी सरहदी |
(इसी से डर रहा हूँ!) |
कि मिट्टी मर गई पंजाब की थी |
शेरे-पंजाब के प्यारे वतन की |
'भगत' |
Saturday, June 18, 2011
अपने ज़िले की मिट्टी से - फणीश्वर नाथ रेणु
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