गत माह, दो बड़े घाव |
धरती पर हुए, हमने देखा |
नक्षत्र खचित आकाश से |
दो बड़े नक्षत्र झरे!! |
रस के, रंग के-- दो बड़े बूंद |
ढुलक-ढुलक गए। |
कानन कुंतला पृथ्वी के दो पुष्प |
गंधराज सूख गए!! |
(हमारे चिर नवीन कवि, |
हमारे नवीन विश्वकवि |
दोनों एक ही रोग से |
एक ही माह में- गए |
आश्चर्य?) |
तुमने देखा नहीं--सुना नहीं? |
(भारत में) कानपुर की माटी-माँ, उस दिन |
लोरी गा-गा कर अपने उस नटखट शिशु को |
प्यार से सुला रही थी! |
(रूस में)पिरिदेलकिना गाँव के |
उस गिरजाघर के पास- |
एक क्रास... एक मोमबत्ती |
एक माँ... एक पुत्र... अपूर्व छवि |
माँ-बेटे की! मिलन की!! ... तुमने देखी? |
यह जो जीवन-भर उपेक्षित, अवहेलित |
दमित द्मित्रि करमाज़व के |
(अर्थात बरीस पस्तेरनाक; |
अर्थात एक नवीन जयघोष |
मानव का!)के अन्दर का कवि |
क्रांतदर्शी-जनयिता, रचयिता |
(...परिभू: स्वयंभू:...) |
ले आया एक संवाद |
आदित्य वर्ण अमृत-पुत्र का : |
अमृत पर हमारा |
है जन्मगत अधिकार! |
तुमने सुना नहीं वह आनंद मंत्र? |
[आश्चर्य! लाखों टन बर्फ़ के तले भी |
धड़कता रहा मानव-शिशु का हृत-पिंड? |
निरंध्र आकाश को छू-छू कर |
एक गूंगी, गीत की कड़ी- मंडराती रही |
और अंत में- समस्त सुर-संसार के साथ |
गूँज उठी! |
धन्य हम-- मानव!!] |
बरीस |
तुमने अपने समकालीन- अभागे |
मित्रों से पूछा नहीं |
कि आत्महत्या करके मरने से |
बेहतर यह मृत्यु हुई या नहीं? |
[बरीस |
तुम्हारे आत्महंता मित्रों को |
तुमने कितना प्यार किया है |
यह हम जानते हैं!] |
कल्पना कर सकता हूँ उन अभागे पाठकों की |
जो एकांत में, मन-ही-मन अपने प्रिय कवि |
को याद करते हैं- छिप-छिप कर रोते- अआँसू पोंछते हैं; |
पुण्य बःऊमि रूस पर उन्हें गर्व है |
जहाँ तुम अवतरे-उनके साथ |
विश्वास करो, फिर कोई साधक |
साइबेरिया में साधना करने का |
व्रत ले रहा है। ...मंत्र गूँज रहा है!! |
...बाँस के पोर-पोर को छेदकर |
फिर कोई चरवाहा बाँसुरी बजा रहा है। |
कहीं कोई कुमारी माँ किसी अस्तबल के पास |
चक्कर मार रही है-- देवशिशु को |
जन्म देने के लिए! |
संत परम्परा के कवि पंत |
की साठवीं जन्मतिथि के अवसर पर |
(कोई पतियावे या मारन धावे |
मैंने सुना है, मैंने देखा है) |
पस्तेरनाक ने एक पंक्ति लिख भेजी: |
"पिंजड़े में बंद असहाय प्राणी मैं |
सुन रहा हूँ शिकारियों की पगध्वनि... आवाज़! |
किंतु वह दिन अत्यन्त निकट है |
जब घृणित-क़दम-अश्लील पशुता पर |
मंगल-कामना का जयघोष गूँजेगा |
निकट है वह दिन... |
हम उस अलौकिक के सामने |
श्रद्धा मॆं प्रणत हैं।" |
फिर नवीन ने ज्योति विहग से अनुरोध किया |
"कवि तुम ऎसी तान सुनाओ!" |
सौम्य-शांत-पंत मर्मांत में |
स्तब्ध एक आह्वान..?? |
हमें विश्वास है |
गूँजेगा, |
गूँजेगा!! |
Saturday, June 18, 2011
गत मास का साहित्य!! - फणीश्वर नाथ रेणु
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