इस ब्लाक के मुख्य प्रवेश-द्वार के समने |
हर मौसम आकर ठिठक जाता है |
सड़क के उस पार |
चुपचाप दोनों हाथ |
बगल में दबाए |
साँस रोके |
ख़ामोश |
इमली की शाखों पर हवा |
'ब्लाक' के अन्दर |
एक ही ऋतु |
हर 'वार्ड' में बारहों मास |
हर रात रोती काली बिल्ली |
हर दिन |
प्रयोगशाला से बाहर फेंकी हुई |
रक्तरंजित सुफ़ेद |
खरगोश की लाश |
'ईथर' की गंध में |
ऊंघती ज़िन्दगी |
रोज़ का यह सवाल, 'कहिए! अब कैसे हैं?' |
रोज़ का यह जवाब-- ठीक हूँ! सिर्फ़ कमज़ोरी |
थोड़ी खाँसी और तनिक-सा... यहाँ पर... मीठा-मीठा दर्द! |
इमर्जेंसी-वार्ड की ट्रालियाँ |
हड़हड़-भड़भड़ करती |
आपरेशन थियेटर से निकलती हैं- इमर्जेंसी! |
सैलाइन और रक्त की |
बोतलों में क़ैद ज़िन्दगी! |
-रोग-मुक्त, किन्तु बेहोश काया में |
बूंद-बूंद टपकती रहती है- इमर्जेंसी! |
सहसा मुख्य द्वार पर ठिठके हुए मौसम |
और तमाम चुपचाप हवाएँ |
एक साथ |
मुख और प्रसन्न शुभकामना के स्वर- इमर्जेंसी! |
('धर्मयुग'/ 26 जून, 1977 में पहली बार प्रकाशित) |
Saturday, June 18, 2011
इमेर्जेंसी / फणीश्वर नाथ रेणु
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment